हर्बा है आशिक़ों का फ़क़त आह-ए-पेचदार
दरवेश लोग रखते हैं जैसे हिरन की शाख़
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मेहंदी के धोके मत रह ज़ालिम निगाह कर तू
जो शैख़-ए-शहर आया हम से औबाशों की मज्लिस में
मजनूँ कहानी अपनी सुनावे अगर मुझे
जब से साने ने बनाया है जहाँ का बहरूप
सर अपने को तुझ पर फ़िदा कर चुके हम
ऐ ग़म-ज़दा ज़ब्त कर के चलना
ताब-ओ-ताक़त रहे क्या ख़ाक कि आज़ा के तईं
तू खुले बालों मिरे सामने आया मत कर
गर देखिए तो आईना-ए-क़द-नुमा की शक्ल
लग रही है ख़ाना-ए-दिल को हमारे आग हाए
रोज़-ए-विसाल जिस को कहती है ख़ल्क़ वो ही
आज की शब गर रहेंगे 'मुसहफ़ी' बैरून-ए-दर