तू खुले बालों मिरे सामने आया मत कर
वर्ना सर पीट अभी घर से निकल जाऊँगा
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तमाशे की शक्लें अयाँ हो गई हैं
क्या बैठना क्या उठना क्या बोलना क्या हँसना
गो मैं बुतों में उम्र को काटा तो क्या हुआ
ख़ुदा की क़सम फिर तो क्या ख़ैर होवे
क्या काम किया तुम ने थी ये भी अदा कोई
अल्लाह-रे तेरे सिलसिला-ए-ज़ुल्फ़ की कशिश
ख़्वाहिश-ए-वस्ल तो रखता हूँ बहुत जी में वले
देख कर इक जल्वे को तेरे गिर ही पड़ा बे-ख़ुद हो मूसा
हम से वो बे-सबब उलझती है
ज़ुल्मात-ए-शब-ए-हिज्र की आफ़ात है और तू
अक़्ल गई है सब की खोई क्या ये ख़ल्क़ दिवानी है
अव्वल तो ये धज और ये रफ़्तार ग़ज़ब है