क्या बैठना क्या उठना क्या बोलना क्या हँसना
हर आन में काफ़िर की इक आन निकलती है
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हिन्दोस्ताँ में दौलत ओ हशमत जो कुछ कि थी
क्या जाने क्या करेगा ये दीदार देखना
ख़ुदा हम तो शब-ए-फ़िराक़ से मजबूर हो गए
इस रंग से अपने घर न जाना
मैं वो दोज़ख़ हूँ कि आतिश पर मिरी
शब जो होली की है मिलने को तिरे मुखड़े से जान
शेर क्या जिस में नोक-झोक न हो
सोच दिन रात यही है तिरे दीवाने की
आग़ोश की हसरत को बस दिल ही में मारुँगा
मैं सवा शेर के कुछ और समझता ही नहीं
उस शाहिद-ए-निहाँ का कुश्ता हूँ मैं कि जिस ने
सरक ऐ मौज सलामत तो रह-ए-साहिल ले