क्या जाने क्या करेगा ये दीदार देखना
इक दिन में आईना उसे सौ बार देखना
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'मुसहफ़ी' कुछ कम नसारा से नहीं
सहव और सुक्र में रहते हैं तभी तो फ़ुक़रा
देखें तो क्यूँकर वो काफ़िर दर तक अपने न आवेगा
बस हम हैं शब और कराहना है
इस नाज़नीं की बातें क्या प्यारी प्यारियाँ हैं
तर्रार ज़ुल्फ़-ए-यार अगर चर्ख़ पर चढ़े
आसाँ नहीं है तन्हा दर उस का बाज़ करना
अव्वल तो ये धज और ये रफ़्तार ग़ज़ब है
धो डालिए ख़ून 'मुसहफ़ी' का
ये रोज़ ढूँढ लाए है इक ख़ूब-रू नया
अब मिरी बात जो माने तो न ले इश्क़ का नाम
हम-सफ़ीरों से सबा कहियो कि तुम में भी कभी