ये रोज़ ढूँढ लाए है इक ख़ूब-रू नया
शाकी हैं अपने ही दिल-ए-आफ़त-तलब से हम
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जानते आप से जुदा तुझ को
मुख-फाट मुँह पे खाएँगे तलवार हो सो हो
कुछ इस क़दर नहीं सफ़र-ए-हस्ती-ओ-अदम
जो शम्अ है काबे की वही नूर का शोअ'ला
मरते मरते इसी बुत का मुझे कलमा पढ़ना
धोया गया तमाम हमारा ग़ुबार-ए-दिल
मैं ने कहा था उस से अहवाल-ए-गिरिया अपना
ग़ज़ल ऐ 'मुसहफ़ी' ये 'मीर' की है
ख़ुदा रक्खे ज़बाँ हम ने सुनी है 'मीर' ओ 'मिर्ज़ा' की
आता नहीं समझ में कि कहते हैं किस को इश्क़
क़िस्सा-ए-मजनूँ पसंद-ए-ख़ातिर जानाना है
दूर से मुझ को न मुँह अपना दिखाओ जाओ