मैं ने कहा था उस से अहवाल-ए-गिरिया अपना
सुनते ही हँस पड़ा वो यकबार खिलखिला कर
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ख़ुश-तालई में शम्स ओ क़मर दोनों एक हैं
गरचे ऐ दिल आशिक़-ए-शैदा है तू
मर्ग की देखते ही शक्ल गए भाग हवास
जान को जैसे निकाले है कोई क़ालिब से
तड़ावे के लिए है ख़्वान पोश महर-ओ-मह नादाँ
किबरियाई की अदा तुझ में है
इक हर्फ़-ए-कुन में जिस ने कौन-ओ-मकाँ बनाया
कौन कहता है कि फिर ख़ाक से उठते हैं शहीद
आस्तीं उस ने जो कुहनी तक चढ़ाई वक़्त-ए-सुब्ह
ढूँढता है मुझे वो तेग़ लिए और मैं वहीं
रही हमेशा तरक़्क़ी मिरी असीरी को
क़ासिद को उस ने जाते ही रुख़्सत किया था लेक