कौन कहता है कि फिर ख़ाक से उठते हैं शहीद
सर उठा सकते हैं मारे तिरी तलवारों के
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मैं ने किस चश्म के अफ़्साने को आग़ाज़ किया
न पूछ इश्क़ के सदमे उठाए हैं क्या क्या
उस के कूचे में पुकारेगा अगर मुझ को रक़ीब
गर रहूँ शहर में हो दूद के बाइस ख़फ़क़ाँ
कूचा-ए-यार में रहने से नहीं और हुसूल
फ़लक की ख़बर कब है ना-शाइरों को
सैल-ए-गिर्या का मैं ममनूँ हूँ कि जिस की दौलत
मैं किंगरा-ए-अर्श से पर मार के गुज़रा
लहरों का थरथराना क्यूँ-कर पसंद आवे
जाड़ों में है ये रंग कि अपने लिहाफ़ के
उस के लहराने में चाल आई न मुतलक़ साँप की
दिल को ये इज़्तिरार कैसा है