गर रहूँ शहर में हो दूद के बाइस ख़फ़क़ाँ
जाऊँ सहरा को तो दम गर्द-ए-बयाबाँ रोके
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काबा ओ दैर में ढूँडे जो कहीं ले के चराग़
आता है किस अंदाज़ से टुक नाज़ तो देखो
जिस कू मैं हो गुज़ार-ए-परी-तलअतान-हिन्द
चाहूँगा मैं तुम को जो मुझे चाहोगे तुम भी
हम से वो बे-सबब उलझती है
इस हवा में कर रहे हैं हम तिरा ही इंतिज़ार
क्या जानिए चमन में क्या ताज़ा गुल खिला हो
इस वास्ते फ़ुर्क़त में जीता मुझे रक्खा है
कब सबा सू-ए-असीरान-ए-क़फ़स आती है
लैला चली थी हज के लिए जज़्ब-ए-इश्क़ से
सामने उस के लगूँ रोने तो झुँझला के कहे
बस हम हैं शब और कराहना है