काबा ओ दैर में ढूँडे जो कहीं ले के चराग़
तुझ सा काफ़िर न मिले और न मुसलमाँ मुझ सा
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मैं उन मुसाफ़िरों में हूँ इस चश्म-ए-तर के हाथ
है रोज़-ए-पंज-शम्बा तू फ़ातिहा दिला दे
सरासर ख़जलत-ओ-शर्मिंदगी है
धोया गया तमाम हमारा ग़ुबार-ए-दिल
किस की ख़ातिर को मुक़द्दम रख्खूँ मैं हैरान हूँ
तू हम-दमों से जुदा रह कि टूट जाता है
वो जो आशिक़ हैं अपने हाथों से
हमेशा शेर कहना काम था वाला-निज़ादों का
यूँ चलते हैं लोग राह ज़ालिम
छोड़ा न एक लहज़ा तिरी ज़ुल्फ़ ने ख़याल
'मुसहफ़ी' क्यूँके छुपे उन से मिरा दर्द-ए-निहाँ
निस्बत फिर उस से क्या मह-ए-दाग़ी को दीजिए