छोड़ा न एक लहज़ा तिरी ज़ुल्फ़ ने ख़याल
रुख़ से जुदा हुई तो गले से लिपट गई
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मैं ने किस चश्म के अफ़्साने को आग़ाज़ किया
दिल के आईने की हम लेते हैं तब है है ख़बर
सदा फ़िक्र-ए-रोज़ी है ता ज़िंदगी है
आस्तीं उस ने जो कुहनी तक चढ़ाई वक़्त-ए-सुब्ह
बहस उस की मेरी वक़्त-ए-मुलाक़ात बढ़ गई
कहती है नमाज़-ए-सुब्ह की बाँग
दर तलक आ के टुक आवाज़ सुना जाओ जी
तू ने मुँह फेरा और उस का नूर सा जाता रहा
रुख़ ज़ुल्फ़ में बे-नक़ाब देखा
तू खुले बालों मिरे सामने आया मत कर
हर-चंद कि हो मरीज़-ए-मोहतात
मैं वो दोज़ख़ हूँ कि आतिश पर मिरी