हर-चंद कि हो मरीज़-ए-मोहतात
हर-चंद कि हो मरीज़-ए-मोहतात
क्या कर सके बा-फ़साद इख़्लात
इदरीस की सालहा रही है
कूचे में तिरे दुकान-ए-ख़य्यात
रुख़ पर तिरे देख सब्ज़ा-ए-ख़त
हैरान हैं सब जहाँ के ख़त्तात
जितनी मिरे दिल में है तेरी चाह
कम होगी न इस से नीम क़ीरात
ख़ूँ से तिरे बिस्मिलों के देखी
कूचे में तिरे बिछी सुक़रलात
क़द उस का नहीं अगरचे कोतह
है जिस्म की लाग़री ब-इफ़रात
ऐ यारो न 'मुसहफ़ी' को कोई
समझो न कम-अज़-रशीद-वित्वात्
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