मंसूर ने न ज़ुल्फ़ के कूचे की राह ली
नाहक़ फँसा वो क़िस्सा-ए-दार-ओ-रसन के बीच
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किसी के हाथ तो लगता नहीं है इक अय्यार
पस-ए-क़ाफ़िला जो ग़ुबार था कोई उस में नाक़ा-सवार था
गर अब्र घिरा हुआ खड़ा है
क्या काम किया तुम ने थी ये भी अदा कोई
रही हमेशा तरक़्क़ी मिरी असीरी को
आज पलकों को जाते हैं आँसू
पेच दे दे लफ़्ज़ ओ मअनी को बनाते हैं कुलफ़्त
न वो वादा-ए-सर-ए-राह है न वो दोस्ती न निबाह है
याँ तक किया मैं गिर्या कि ख़ूबाँ के इश्क़ में
आए हो तो ये हिजाब क्या है
सौ बार गया मैं उस के दर पर
उस गुल का पता गर नहीं देते हो तो यारो