पेच दे दे लफ़्ज़ ओ मअनी को बनाते हैं कुलफ़्त
और वो फिर उस पे रखते हैं गुमान-ए-रेख़्ता
Javed Akhtar
Allama Iqbal
Mohsin Naqvi
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Jaun Eliya
Rahat Indori
Ahmad Faraz
Faiz Ahmad Faiz
Gulzar
Habib Jalib
Wasi Shah
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हम सुबुक-रूह असीरों के लिए लाज़िम है
दिल ही दिल में याँ मोहब्बत अपना घर करती रही
ग़ैर के घर तू न रह रात को मेहमान कहीं
मार नहिं डालते हैं यूँ उस को
मक़्सूद है आँखों से तिरा देखना प्यारे
गो ज़ख़्मी हैं हम पर उसे क्या ग़म है हमारा
शब जो होली की है मिलने को तिरे मुखड़े से जान
मौसम-ए-होली है दिन आए हैं रंग और राग के
शेर दौलत है कहाँ की दौलत
याँ रख़्ना-हा-ए-सीना कुदूरत से हैं फटे
जो शैख़-ए-शहर आया हम से औबाशों की मज्लिस में
रुख़ से लहरा कर ज़नख़दाँ के हैं माइल मु-ए-ज़ुल्फ़