मौसम-ए-होली है दिन आए हैं रंग और राग के
हम से तुम कुछ माँगने आओ बहाने फाग के
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माह की आँख जो रहती है लगी ऊधर ही
तुम्हारे हाथ को छोड़ूँ हूँ मैं कोई साहिब
पटरे धरे हैं सर पर दरिया के पाट वाले
इक हाल हो तो यारो उस का बयाँ करें हम
इक बिजली की कौंद हम ने देखी
शब जो होली की है मिलने को तिरे मुखड़े से जान
मुफ़्लिस के दिए की सी तिरा दाग़-ए-दिल अपना
क़नाअत उस की निकलती है वाज़्गूनी में
ये ज़माना वो है जिस में हैं बुज़ुर्ग ओ ख़ुर्द जितने
तू ने मुँह फेरा और उस का नूर सा जाता रहा
जानते आप से जुदा तुझ को
ज़ालिम ख़ुदा के वास्ते बैठा तो रह ज़रा