मातम में फ़ौत-ए-उम्र के रोता हूँ रात दिन
दुनिया में मुझ सा कम है कोई सोगवार शख़्स
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तेरी इस्मत में हमें शक नहीं ऐ माया-ए-नाज़
कुछ टूटे फटे सीने को साथ अपने सफ़र में
मैं क्यूँकर न रख्खूँ अज़ीज़ अपने दिल को
जब घर से वो बाद-ए-माह निकले
दिल दुखा ही करे है सीने में
क्या रेख़्ता कम है 'मुसहफ़ी' का
हम तो उस कूचे में घबरा के चले आते हैं
दर तलक आ के टुक आवाज़ सुना जाओ जी
ख़्वारियाँ बदनामियाँ रुस्वाइयाँ
ग़म तिरा दिल में मिरे फिर आग सुलगाने लगा
गो ज़ख़्मी हैं हम पर उसे क्या ग़म है हमारा
तमाशे की शक्लें अयाँ हो गई हैं