मत गोर-ए-ग़रीबाँ पर घोड़े को कुदाओ यूँ
क्यूँ अपने शहीदों के आसार मिटाते हो
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कब सबा सू-ए-असीरान-ए-क़फ़स आती है
रात करता था वो इक मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार से बहस
ले क़ैस ख़बर महमिल-ए-लैला तो न होवे
'मुसहफ़ी' हम तो ये समझे थे कि होगा कोई ज़ख़्म
ऐ फ़लक तुझ को क़सम है मिरी इस को न बुझा
शब जो होली की है मिलने को तिरे मुखड़े से जान
आँखें हैं जोश-ए-अश्क से पनघट
ये जो अपने हाथ में दामन सँभाले जाते हैं
दिल के नगर में चार तरफ़ जब ग़म की दुहाई बैठ गई
ऐ 'मुसहफ़ी' गावे ये ग़ज़ल मेरी जो राँझा
वहशत है मेरे दिल को तो तदबीर-ए-वस्ल कर
तो माइल-ए-उश्शाक़-कुशी है तो यहाँ भी