गो ज़ख़्मी हैं हम पर उसे क्या ग़म है हमारा
अब तक भी न पट्टी है न मरहम है हमारा
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मैं ने क्या और निगह से तिरे रुख़ को देखा
मैं किंगरा-ए-अर्श से पर मार के गुज़रा
उन को भी तिरे इश्क़ ने बे-पर्दा फिराया
वहीं थे शाख़-ए-गुल पर गुल जहाँ जम्अ
है तिरी कू में ख़बर हश्र के हंगामे की
आता है किस अंदाज़ से टुक नाज़ तो देखो
सब उठ्ठे बज़्म से और अपने अपने घर को चले
छेड़े है उस को ग़ैर तो कहता है उस से यूँ
हम 'मुसहफ़ी' ब-कुफ़्र तो मशहूर हो चुके
है तमन्ना-ए-सैर-ए-बाग़ किसे
इन दिनों शहर से जी सख़्त ब-तंग आया है
'मुसहफ़ी' इस से भी रंगीं ग़ज़ल इक और लिखी