इन दिनों शहर से जी सख़्त ब-तंग आया है
ले चल ऐ जोश-ए-जुनूँ सू-ए-बयाबाँ मुझ को
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'मुसहफ़ी' रशहा-ए-क़लम से मिरे
जब तक कि तिरी गालियाँ खाने के नहीं हम
जागा है रात प्यारे तू किस के घर जो तेरी
नमली और न दूदी है न मंशारी है
ऐ ग़म-ज़दा ज़ब्त कर के चलना
दर तलक जाने की है उस के मनाही हम को
बीमार दिल जुदा है इधर मैं उधर जुदा
सामने उस के लगूँ रोने तो झुँझला के कहे
दरिया-ए-आशिक़ी में जो थे घाट घाट साँप
उस गुल का पता गर नहीं देते हो तो यारो
गर समझते वो कभी मअनी-ए-मत्न-ए-क़ुरआँ
मुझ को ये सोच है जीते हैं वे क्यूँ-कर या-रब