जब तक कि तिरी गालियाँ खाने के नहीं हम
उठ कर तिरे दरवाज़े से जाने के नहीं हम
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जानिब-ए-कअबा तू क्यूँ ले गया बुत-ख़ाने से
ज़माने का चलन यकसाँ नहीं कुछ
उस के दर पर मैं गया साँग बनाए तो कहा
बारा-वफ़ातें बीसवीं झड़ियाँ हैं सौ जगह
शीशा-ए-मय की तरह ऐ साक़ी
बातें कई ज़बानी मैं ने कही हैं उस से
फ़लक की ख़बर कब है ना-शाइरों को
फ़हमीदा है जो तुझ को तो फ़हमीद से निकल
दम ग़नीमत है कि वक़्त-ए-ख़ुश-दिली मिलता नहीं
ज़ख़्म है और नमक फ़िशानी है
पैरहन लूटे मज़े तेरी हम-आग़ोशी के
जिस वक़्त कि कोठे पर वो माह-ए-तमाम आवे