जानिब-ए-कअबा तू क्यूँ ले गया बुत-ख़ाने से
मुझ से दीवाने को ऐ इश्क़ न बहकाना था
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बारा-वफ़ातें बीसवीं झड़ियाँ हैं सौ जगह
हाल-ए-दिल-ए-बे-क़रार है और
तू मेरे सामने बैठा है आह तिस पर भी
कीजिए ज़ुल्म सज़ा-वार-ए-जफ़ा हम ही हैं
घर में बाशिंदे तो इक नाज़ में मर जाते हैं
पाया-ए-तख़्त-ए-सुलैमाँ का है शाएर 'मुसहफ़ी'
क्या जाने क्या करेगा ये दीदार देखना
कहीं देखा है इस हैअत का माशूक़
मजनूँ कहानी अपनी सुनावे अगर मुझे
शेर दौलत है कहाँ की दौलत
बुलबुलो बाग़बाँ को क्यूँ छेड़ा
काम अज़-बस-कि ज़माने का हुआ है बर-अक्स