जाँ-बर हो किस तरह तप-ए-सौदा से 'मुसहफ़ी'
हाँडी सा खदबदाए है कुछ इस जवाँ का मग़्ज़
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ठठ की ठठ इतनी चली आती है ये काहे को
सैल-ए-गिर्या का मैं ममनूँ हूँ कि जिस की दौलत
नक़्शा है उन की चश्म में लैला की चश्म का
आह देखी थी मैं जिस घर में परी की सूरत
कल क़ाफ़िला-ए-निक्हत-ए-गुल होगा रवाना
शब में देखी हैं पड़ी पाँव में ज़ंजीरें दो
बे-मुरव्वत तुझे आज़ुर्दा करेंगे हम लोग
जान को जैसे निकाले है कोई क़ालिब से
ग़ैर के घर तू न रह रात को मेहमान कहीं
तीखे तो हो प सच कहो उस वक़्त क्या करो
अल्लाह-रे तेरे सिलसिला-ए-ज़ुल्फ़ की कशिश
कपड़े बदल के आए थे आग मुझे लगा गए