सैल-ए-गिर्या का मैं ममनूँ हूँ कि जिस की दौलत
बह गई दिल से मिरे जूँ ख़स-ओ-ख़ाशाक हवस
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गो मैं बुतों में उम्र को काटा तो क्या हुआ
गुल ही इस बाग़ से जाने पे नहीं बैठा कुछ
ऐ 'मुसहफ़ी' तू और कहाँ शेर का दावा
तरसा न मुझ को खींच के तलवार मार डाल
उस के लहराने में चाल आई न मुतलक़ साँप की
हिन्दोस्ताँ में दौलत ओ हशमत जो कुछ कि थी
वो आरज़ू न रही और वो मुद्दआ न रहा
'मुसहफ़ी' रशहा-ए-क़लम से मिरे
मु-ए-जुज़ 'मीर' जो थे फ़न के उस्ताद
हाथ दोनों कफ़-ए-अफ़्सोस की सूरत लिक्खे
जब चाहे तू जला दे मिरे मुश्त-ए-उस्तुख़्वाँ
तू ने मुँह फेरा और उस का नूर सा जाता रहा