ऐ 'मुसहफ़ी' तू और कहाँ शेर का दावा
फबता है ये अंदाज़-ए-सुख़न 'मीर' के मुँह पर
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किधर जाइए और कहाँ बैठिए
इस क़दर भी तो मिरी जान न तरसाया कर
सर अपने को तुझ पर फ़िदा कर चुके हम
तू हम-दमों से जुदा रह कि टूट जाता है
रुख़ ज़ुल्फ़ में बे-नक़ाब देखा
सज्दा करता हूँ मैं मेहराब समझ कर उस को
नज़रों में एक बोसा माँगा था हम ने उस से
नाज़ुक है दिल-ए-यार बहुत चाहिए मुझ को
बे-लाग हैं हम हम को रुकावट नहीं आती
पेच दे दे लफ़्ज़ ओ मअनी को बनाते हैं कुलफ़्त
सीना है पुर्ज़े पुर्ज़े जा-ए-रफ़ू नहीं याँ
तिरे कूचे हर बहाने मुझे दिन से रात करना