तिरे कूचे हर बहाने मुझे दिन से रात करना
कभी इस से बात करना कभी उस से बात करना
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हर-चंद कि बात अपनी कब लुत्फ़ से ख़ाली है
हल्क़ा-ए-ज़ंजीर से निकला न ये पा-ए-जुनूँ
इन दिनों शहर से जी सख़्त ब-तंग आया है
महरूम है नामा-दार-ए-दुनिया
धोया गया तमाम हमारा ग़ुबार-ए-दिल
मक़्तल-ए-यार में टुक ले तो चलो ऐ यारो
जाँ-बर हो किस तरह तप-ए-सौदा से 'मुसहफ़ी'
तख़्ता-ए-आब-ए-चमन क्यूँ न नज़र आवे सपाट
तुम्हारे हाथ को छोड़ूँ हूँ मैं कोई साहिब
हर चंद अमरदों में है इक राह का मज़ा
ले क़ैस ख़बर महमिल-ए-लैला तो न होवे
अव्वल तो ये धज और ये रफ़्तार ग़ज़ब है