हर चंद अमरदों में है इक राह का मज़ा
ग़ैर अज़ निसा वले न मिला चाह का मज़ा
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मैं जिन को बात करना ऐ 'मुसहफ़ी' सिखाया
मातम में फ़ौत-ए-उम्र के रोता हूँ रात दिन
मज्लिस में उस की अब तो दरबार सा लगे है
जिस्म ने रूह-ए-रवाँ से ये कहा तुर्बत में
आसमाँ को निशाना करते हैं
क्या तअज्जुब है अगर फिर के हो अहया मेरा
उस के कूचे में पुकारेगा अगर मुझ को रक़ीब
गर और भी मिरी तुर्बत पे यार ठहरेगा
अव्वल तो थोड़ी थोड़ी चाहत थी दरमियाँ में
ख़्वाब था या ख़याल था क्या था
उस गली में जो हम को लाए क़दम
जब मैं ने कहा आँखें छुपा खोल दिया मुँह