मैं जिन को बात करना ऐ 'मुसहफ़ी' सिखाया
हर बात में वो मेरी अब बात काटते हैं
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पहना जो मैं ने जामा-ए-दीवानगी तो इश्क़
बहुत दिलों को सताया है तू ने ऐ ज़ालिम
तन तो कहाँ है शोला-ए-फ़ानूस की तरह
तू जिस के ख़्वाब में आया हो वक़्त-ए-सुब्ह सनम
शब में वाँ जाऊँ तो जाऊँ किस तरह
शोख़ी-ए-हुस्न के नज़्ज़ारे की ताक़त है कहाँ
जूँ ही ज़ंजीर के पास आए पाँव
इस क़दर भी तो मिरी जान न तरसाया कर
मैं जो कुछ हूँ सो हूँ क्या काम है इन बातों से
चले ले के सर पर गुनाहों की गठरी
ऊधर गया तू ग़ुस्ल को हम्माम की तरफ़
बद-गुमानी ने मुझे क्या क्या सताया क्या कहूँ