तू जिस के ख़्वाब में आया हो वक़्त-ए-सुब्ह सनम
नमाज़-ए-सुब्ह को किस तरह वो क़ज़ा न करे
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जब घर से वो बाद-ए-माह निकले
याँ रख़्ना-हा-ए-सीना कुदूरत से हैं फटे
गो भूल गया हूँ मैं तुझे तो भी तिरा रंग
राँझा यही कहता था इधर देखियो मजनूँ
चराग़-ए-हुस्न-ए-यूसुफ़ जब हो रौशन
रातों को आँख उठा के ज़रा देख तो सही
महरूम है नामा-दार-ए-दुनिया
अक़्ल गई है सब की खोई क्या ये ख़ल्क़ दिवानी है
हम तो उस कूचे में घबरा के चले आते हैं
'मुसहफ़ी' हम तो ये समझे थे कि होगा कोई ज़ख़्म
दिल के नगर में चार तरफ़ जब ग़म की दुहाई बैठ गई
बाग़बाँ काटियो मत मौसम-ए-गुल में उस को