याँ रख़्ना-हा-ए-सीना कुदूरत से हैं फटे
वाँ हो गए हैं रौज़न-ए-दीवार-ए-यार बंद
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दिन को है सहरा-नवर्दी से हमें काम ऐ रफ़ीक़
दूर से मुझ को न मुँह अपना दिखाओ जाओ
गिर्या दिल को न सू-ए-चश्म बहाओ
हम-सफ़ीरों से सबा कहियो कि तुम में भी कभी
आँखें हैं जोश-ए-अश्क से पनघट
क्या जाने क्या करेगा ये दीदार देखना
चश्म-ए-लैला का जो आलम है उन्हों की चश्म में
नहीं करती असर फ़रियाद मेरी
भूल जावे साहिब-ए-इक़बाल अपनी सर-कशी
मुँह में जिस के तू शब-ए-वस्ल ज़बाँ देता है
वो दर तलक आवे न कभी बात की ठहरे
कल क़ाफ़िला-ए-निक्हत-ए-गुल होगा रवाना