भूल जावे साहिब-ए-इक़बाल अपनी सर-कशी
उस को दिखलावे अगर मेरी बद-इक़बाली दिमाग़
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हम दिल को लिए बर-सर-ए-बाज़ार खड़े हैं
खावेंगे टाँके ज़ख़्म-ए-सर-ओ-रू पर ऐ तबीब
शब-ए-हिज्र का माजरा कोएले से
हैराँ हूँ इस क़दर कि शब-ए-वस्ल भी मुझे
इस गुलशन-ए-पुर-ख़ार से मानिंद-ए-सबा भाग
तीन हिस्से हैं ज़मीं के ग़र्क़-ए-दरिया-ए-मुहीत
शब में वाँ जाऊँ तो जाऊँ किस तरह
दिल ख़ुश न हुआ ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ से निकल कर
तू मेरे दर्द से आगाह यूँ न होवेगा
नसीम मुज़्तरिब-उल-हाल जाए थे पीछे
उस गुल का पता गर नहीं देते हो तो यारो
'मुसहफ़ी' फ़ारसी को ताक़ पे रख