'मुसहफ़ी' फ़ारसी को ताक़ पे रख
अब है अशआर-ए-हिंदवी का रिवाज
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इस तरफ़ भी कभी आना कि असीरान-ए-क़फ़स
तारीकी में होता है उसे वस्ल मयस्सर
मज़े में अब तलक बैठा मैं अपने होंठ चाटूँ हूँ
क्या जानिए चमन में क्या ताज़ा गुल खिला हो
उस बुत को नहीं है डर ख़ुदा से
ग़ज़ल कहने का किस को ढब रहा है
ज़माने का चलन यकसाँ नहीं कुछ
या-रब मिरी उस बुत से मुलाक़ात कहीं हो
दिल के नगर में चार तरफ़ जब ग़म की दुहाई बैठ गई
लाख हम शेर कहें लाख इबारत लिक्खें
ख़्वाहिश-ए-वस्ल का मज़मूँ जो किसी सत्र में था
इस इमारत पर न कर मुनइम ग़ुरूर