तारीकी में होता है उसे वस्ल मयस्सर
परवाना कहाँ जाए शबिस्ताँ से निकल कर
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शहवत उन से कौन सी सादिर हुई जो 'मुसहफ़ी'
गो मैं बुतों में उम्र को काटा तो क्या हुआ
ऐ दिल-ए-बे-जुरअत इतनी भी न कर बे-जुरअती
लहरों का थरथराना क्यूँ-कर पसंद आवे
ऐ इश्क़ जहाँ है यार मेरा
हर्बा है आशिक़ों का फ़क़त आह-ए-पेचदार
ख़्वाहिश-ए-वस्ल तो रखता हूँ बहुत जी में वले
ये दिल वो शीशा है झमके है वो परी जिस में
सैराब आब-ए-जू से क़दह और क़दह से हम
ज़ुल्फ़ अगर दिल को फँसा रखती है
वाँ रसाई ही नहीं मजनून-ए-सहरा-गर्द की
तदबीर मआश इस जा है शर्त-ए-ख़िरद-मंदी