तदबीर मआश इस जा है शर्त-ए-ख़िरद-मंदी
इंसान नहीं गिनते हम 'मुसहफ़ी' काएर को
Faiz Ahmad Faiz
Habib Jalib
Wasi Shah
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Parveen Shakir
Jaun Eliya
Javed Akhtar
Allama Iqbal
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लब बंद ही रक्खो, नहीं फिर और करेगा
पेच दे दे लफ़्ज़ ओ मअनी को बनाते हैं कुलफ़्त
इश्क़-ए-फ़ुज़ूँ में मेरे न हो दोस्तो कमी
'मुसहफ़ी' इस से भी रंगीं ग़ज़ल इक और लिखी
किस वक़्त जुदा मुझ से वो कम्बख़्त हुई थी
कुछ अपनी जो हुर्मत तुझे मंज़ूर हो ऐ शैख़
मैं निगाह-ए-पाक से देखे था तिरे हुस्न-ए-पाक को इस पे भी
ठठ की ठठ इतनी चली आती है ये काहे को
गरचे तुम ताज़ा गुल-ए-गुलशन-ए-रानाई हो
या थी हवस-ए-विसाल दिन रात
समझ ले आशिक़ ओ माशूक़ की हम-आग़ोशी
दफ़ीना घर में क्या था और तो हम बादा-नोशों के