मैं निगाह-ए-पाक से देखे था तिरे हुस्न-ए-पाक को इस पे भी
मिरे जी में ख़्वाहिश-ए-वस्ल थी तिरे दिल में बोस-ओ-कनार था
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आदमी को ग़फ़लत-ए-दुनिया नहीं देती नजात
कुछ टूटे फटे सीने को साथ अपने सफ़र में
रोज़-ए-विसाल जिस को कहती है ख़ल्क़ वो ही
वाँ लाल फड़कता है अमीरों के क़फ़स में
दामन-कशाँ वो जाए था सैर-ए-चमन को और
कहूँ तो किस से कहूँ अपना दर्द-ए-दिल मैं ग़रीब
क्यूँ कि कहिए कि अदा-बंदी है
तू मेरे दर्द से आगाह यूँ न होवेगा
हाथ दोनों कफ़-ए-अफ़्सोस की सूरत लिक्खे
दिल दुखा ही करे है सीने में
'मुसहफ़ी' क्यूँके छुपे उन से मिरा दर्द-ए-निहाँ
सरक ऐ मौज सलामत तो रह-ए-साहिल ले