दामन-कशाँ वो जाए था सैर-ए-चमन को और
मैं पीछे पीछे उस के गिरेबाँ-दरीदा था
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कुछ टूटे फटे सीने को साथ अपने सफ़र में
यारान-ए-सुख़न-गो की है वो कंपनी अपनी
दिल्ली हुई है वीराँ सूने खंडर पड़े हैं
आज पलकों को जाते हैं आँसू
मैं तरह डालूँ अगर सोच कर कहीं घर की
धो डालिए ख़ून 'मुसहफ़ी' का
वाँ लाल फड़कता है अमीरों के क़फ़स में
और सरगर्म किया तेरी कशिश ने मुझ को
नाज़ुक है दिल-ए-यार बहुत चाहिए मुझ को
लिया मैं बोसा ब-ज़ोर उस सिपाही-ज़ादे का
अदम वालों की सोहबत से भी नफ़रत हो गई अब तो
भरी आती हैं हर घड़ी आँखें