डाल कर ग़ुंचों की मुँदरी शाख़-ए-गुल के कान में
अब के होली में बनाना गुल को जोगन ऐ सबा
Ahmad Faraz
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तुझ से गर वो दिला नहीं मिलता
है यहाँ किस को दिमाग़ अंजुमन-आराई का
शब मगर रह गई थोड़ी जो नज़र आता है
इधर से झाँकते हैं गह उधर से देख लेते हैं
तू हम-दमों से जुदा रह कि टूट जाता है
हर-चंद कि हो मरीज़-ए-मोहतात
किधर जाइए और कहाँ बैठिए
एक तो बैठे हो दिल को मिरे खो और सुनो
छुरियाँ चलीं शब दिल ओ जिगर पर
जब नबी-साहिब में कोह-ओ-दश्त से आई बसंत
आज ख़ूँ हो के टपक पड़ने के नज़दीक है दिल
बारा-वफ़ातें बीसवीं झड़ियाँ हैं सौ जगह