दैर ओ हरम ब-चशम-ए-हक़ीक़त नहीं जुदा
यानी मआल-ए-सुब्हा-ओ-ज़ुन्नार एक है
Mohsin Naqvi
Habib Jalib
Ahmad Faraz
Javed Akhtar
Allama Iqbal
Rahat Indori
Parveen Shakir
Gulzar
Jaun Eliya
Anwar Masood
Wasi Shah
Mir Taqi Mir
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(272) Peoples Rate This
नज़्र को किस गुल-ए-नौ-रस्ता के दामन में नसीम
ये ज़माना वो है जिस में हैं बुज़ुर्ग ओ ख़ुर्द जितने
ये गुम हुए हैं ख़याल-ए-विसाल-ए-जानाँ में
एक नाले पे है मआश अपनी
कुछ टूटे फटे सीने को साथ अपने सफ़र में
जितना कि ये दुनिया में हमें ख़्वार रखे है
तुम्हारे हाथ को छोड़ूँ हूँ मैं कोई साहिब
अव्वल तो थोड़ी थोड़ी चाहत थी दरमियाँ में
छोड़ा न एक लहज़ा तिरी ज़ुल्फ़ ने ख़याल
ये जो अपने हाथ में दामन सँभाले जाते हैं
तो माइल-ए-उश्शाक़-कुशी है तो यहाँ भी
मुझ को पामाल कर गया है वही