अव्वल तो थोड़ी थोड़ी चाहत थी दरमियाँ में
फिर बात कहते लुक्नत आने लगी ज़बाँ में
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दर्द-ओ-ग़म को भी है नसीबा शर्त
ऐ 'मुसहफ़ी' तू इन से मोहब्बत न कीजियो
तीन हिस्से हैं ज़मीं के ग़र्क़-ए-दरिया-ए-मुहीत
शब-ए-विसाल कब आती है मेरे घर ऐ चर्ख़
इसी सबब तो परेशाँ रहा मैं दुनिया में
तू छोड़ अब तो असीर-ए-क़फ़स को ऐ सय्याद
कूचा-ए-ज़ुल्फ़ में फिरता हूँ भटकता कब का
किसी के हाथ तो लगता नहीं है इक अय्यार
दिल के आईने की हम लेते हैं तब है है ख़बर
आह हमराज़ कौन है अपना
जा जो इक दिन मिल गई पहलू में शोख़ी देखियो
रहमत तिरी ऐ नाक़ा-कश-ए-महमिल-ए-हाजी