अव्वल-ए-उम्र में देखा उसे जिस ने ये कहा
काम आतिश का करेगा ये शरारा आख़िर
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हर-चंद बहार ओ बाग़ है ये
रहमत तिरी ऐ नाक़ा-कश-ए-महमिल-ए-हाजी
वादा-ए-वस्ल दिया ईद की शब हम को सनम
उस के कूचे की तरफ़ था शब जो दंगा आग का
शब-ए-हिज्राँ क्या सियाही न हुई रोज़-ए-सफ़ेद
बद-गुमानी ने मुझे क्या क्या सताया क्या कहूँ
कल सू-ए-ग़ैर उस ने कई बार की निगाह
जो परी भी रू-ब-रू हो तो परी को मैं न देखूँ
ग़म तिरा दिल में मिरे फिर आग सुलगाने लगा
आदमी को ग़फ़लत-ए-दुनिया नहीं देती नजात
खेल जाते हैं जान पर आशिक़
कैसा ये दिन है जो नहीं लाता है रू-ब-शाम