आदमी को ग़फ़लत-ए-दुनिया नहीं देती नजात
सुब्ह जो चौंका हुआ मसरूफ़ इसी सामान में
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क्या दख़्ल किसी से मरज़-ए-इश्क़ शिफ़ा हो
था जो शेर-ए-रास्त सर्व-ए-बोसतान-ए-रेख़्ता
बहुत दिलों को सताया है तू ने ऐ ज़ालिम
अभी अपने मर्तबा-ए-हुस्न से मियाँ बा-ख़बर तू हुआ नहीं
अश्क से मेरे बचे हम-साया क्यूँ-कर घर समेत
ख़ुदा हम तो शब-ए-फ़िराक़ से मजबूर हो गए
जब चाहे तू जला दे मिरे मुश्त-ए-उस्तुख़्वाँ
कह दो मजनूँ से करे अपनी सवारी तय्यार
अमआ की परी माने-ए-पर्वाज़ है जिस तरह
उस के दहान-ए-तंग में जा-ए-सुख़न नहीं
कूचा-ए-यार में रहने से नहीं और हुसूल
दिल के नगर में चार तरफ़ जब ग़म की दुहाई बैठ गई