उस के दहान-ए-तंग में जा-ए-सुख़न नहीं
हम गुफ़्तुगू करें भी तो क्या गुफ़्तुगू करें
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कूचा-ए-यार में रहने से नहीं और हुसूल
तकलीफ़ न दे हम को तो गुल-गश्त-ए-चमन की
सल्तनत और ही माने रखती है
आज की शब गर रहेंगे 'मुसहफ़ी' बैरून-ए-दर
पीछे पड़ी हैं दिल के बे-तरह मेरी आँखें
क़िस्सा-ख़्वाँ बैठे हैं घेरे उस के तईं
उस रश्क-ए-मह की याद दिलाती है चाँदनी
मैं तुझ को याद करता हूँ इलाही
हर-चंद बहार ओ बाग़ है ये
किस राह गया लैला का महमिल नहीं मालूम
शब में वाँ जाऊँ तो जाऊँ किस तरह
जब घर से वो बाद-ए-माह निकले