उस के दर पर मैं गया साँग बनाए तो कहा
चल बे चल दूर हो क्या ले के फ़क़ीरी आया
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दुख़्तर-ए-रज़ की हूँ सोहबत का मुबाशिर क्यूँ-कर
दर्द-ओ-ग़म को भी है नसीबा शर्त
कल क़ाफ़िला-ए-निक्हत-ए-गुल होगा रवाना
था जो शेर-ए-रास्त सर्व-ए-बोसतान-ए-रेख़्ता
मोहब्बत ने किया क्या न आनें निकालीं
उट्ठा गया फ़लक पे गिरा ख़ाक में मिला
ख़रीदार अपना हम को जानते हो
अब जिस दिल-ए-ख़्वाबीदा की खुलती नहीं आँखें
ले क़ैस ख़बर महमिल-ए-लैला तो न होवे
देख उस को इक आह हम ने कर ली
ऐ ग़म-ज़दा ज़ब्त कर के चलना
क्या काम किया तुम ने थी ये भी अदा कोई