अब जिस दिल-ए-ख़्वाबीदा की खुलती नहीं आँखें
रातों को सिरहाने मिरे बेदार यही था
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मिला है आशिक़ी में रुतबा-ए-पैग़म्बरी मुझ को
ऐ 'मुसहफ़ी' अब चखियो मज़ा ज़ोहद का तुम ने
दिल डूब गया टूट गया सब्र का लंगर
ज़ुल्फ़ अगर दिल को फँसा रखती है
जब से मअ'नी-बंदी का चर्चा हुआ ऐ 'मुसहफ़ी'
क्या जाने क्या करेगा ये दीदार देखना
मुझ को पामाल कर गया है वही
वादों ही पे हर रोज़ मिरी जान न टालो
तब जानूँ मैं कि दीन-ए-मोहम्मद के हैं हरीफ़
सीने पे मेरे हर दम रखते हैं हाथ ख़ूबाँ
गह तीर मारता है गह संग फेंकता है
शहर में मुझ से भड़कता था तसव्वुर तेरा