ऐ 'मुसहफ़ी' अब चखियो मज़ा ज़ोहद का तुम ने
मय-ख़ाने में जा जा के बहुत पी हैं शराबें
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सीने के ज़ोर से भी मू भर नहीं उकसती
आसमाँ को निशाना करते हैं
क्या तअज्जुब है अगर फिर के हो अहया मेरा
मज्लिस में उस की अब तो दरबार सा लगे है
आँखें न चुरा 'मुसहफ़ी'-ए-रेख़्ता-गो से
गर ख़ाक से हमारी पुतला कोई बनावे
ऐ ज़ाहिदो बातिल से क़सम खाओ जो पहले
लेने लगे जो चुटकी यक-बार बैठे बैठे
ग़ुबार-ए-दिल को में मिज़्गान-ए-यार से झाड़ा
ये कू-ए-मय-फ़रोश में रौला हुआ कि रात
हल्क़ा-ए-ज़ंजीर से निकला न ये पा-ए-जुनूँ
हाल-ए-दिल-ए-बे-क़रार है और