आस्माँ को निशाना करते हैं
तीर रखते हैं जब कमान में हम
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अपना तो तूल-ए-उम्र से घबरा गया है जी
तुझ बिन तो कभी गुल के तईं बू न करूँ मैं
कर्बला है ये गली क्या जो नहीं मिलता याँ
यूँ चश्म-ए-तर से चेहरे पर आँसू हुए रवाँ
है ये फ़लक-ए-सिफ़्ला वो फीका सा फ़रंगी
मैं तो समझूँगा जो समझाते हो मुझ को हर घड़ी
मैं किस क़तार में हूँ जहाँ मुझ से सैकड़ों
गर देखिए तो आईना-ए-क़द-नुमा की शक्ल
आह हमराज़ कौन है अपना
ज़माने का चलन यकसाँ नहीं कुछ
जमुना में कल नहा कर जब उस ने बाल बाँधे
इक दिन तो लिपट जाए तसव्वुर ही से तेरे