है ये फ़लक-ए-सिफ़्ला वो फीका सा फ़रंगी
रखता है मह ओ ख़ुर से जो पास अपने दो बिस्कुट
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जिस्म ने रूह-ए-रवाँ से ये कहा तुर्बत में
अदम वालों की सोहबत से भी नफ़रत हो गई अब तो
बस-कि हों मिल्लत-ओ-मज़हब से जहाँ के आज़ाद
तुझ बिन तो कभी गुल के तईं बू न करूँ मैं
ख़ूब-रूयों की मोहब्बत से करें क्यूँ तौबा
काम में अपने ज़ुहूर-ए-हक़ है आप
पाँव में क़ैस के ज़ंजीर भली लगती है
नज़र क्या आए ज़ात-ए-हक़ किसी को
आह हमराज़ कौन है अपना
जमुना में कल नहा कर जब उस ने बाल बाँधे
उस के कूचे में पुकारेगा अगर मुझ को रक़ीब
ख़्वारियाँ बदनामियाँ रुस्वाइयाँ