ख़ूब-रूयों की मोहब्बत से करें क्यूँ तौबा
दीन अपना है यही और यही इस्लाम अपना
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क़िस्सा-ख़्वाँ बैठे हैं घेरे उस के तईं
मैं ने किस चश्म के अफ़्साने को आग़ाज़ किया
था जो शेर-ए-रास्त सर्व-ए-बोसतान-ए-रेख़्ता
चमन को आग लगावे है बाग़बाँ हर रोज़
जमुना में कल नहा कर जब उस ने बाल बाँधे
वादों ही पे हर रोज़ मिरी जान न टालो
उस्तुख़्वाँ-बंदी-ए-अल्फ़ाज़ का आलम तू देख
पीछा किसी तरह ये मिरा छोड़ता नहीं
मिज़्गाँ-ज़दन से कम है ज़मान-ए-नमाज़-ए-इश्क़
मैं ने कहा था उस से अहवाल-ए-गिरिया अपना
मुख-फाट मुँह पे खाएँगे तलवार हो सो हो
हर रोज़ हमें घर से सहरा को निकल जाना