पीछा किसी तरह ये मिरा छोड़ता नहीं
हाथों से इश्क़ के कोई जावे कहाँ निकल
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ध्यान बाँधूँ हूँ जो मैं उस की हम-आग़ोशी का
ग़ज़ल ऐ 'मुसहफ़ी' ये 'मीर' की है
मख़्लूक़ हूँ या ख़ालिक़-ए-मख़्लूक़-नुमा हूँ
अदम वालों की सोहबत से भी नफ़रत हो गई अब तो
तारीकी में होता है उसे वस्ल मयस्सर
इस नाज़नीं की बातें क्या प्यारी प्यारियाँ हैं
मैं जो कुछ हूँ सो हूँ क्या काम है इन बातों से
क़िस्मत इक शब ले गई मुझ को जो बाग़-ए-वस्ल में
तसव्वुर तेरी सूरत का मुझे हर शब सताता है
देख उस को इक आह हम ने कर ली
हम 'मुसहफ़ी' ब-कुफ़्र तो मशहूर हो चुके
उस के लहराने में चाल आई न मुतलक़ साँप की