पीछे पड़ी हैं दिल के बे-तरह मेरी आँखें
क्या जाने क्या करेंगी दरिया-ए-ख़ूँ बहा कर
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आलम को इक हलाक किया उस ने 'मुसहफ़ी'
बातों ने उस की हम को ख़ामोश कर दिया है
गर समझते वो कभी मअनी-ए-मत्न-ए-क़ुरआँ
वहशत है मेरे दिल को तो तदबीर-ए-वस्ल कर
जिस को कहते हैं अरसा-ए-हस्ती
मैं ने क्या और निगह से तिरे रुख़ को देखा
दिल उलझता रहा ता-सुब्ह हमारा शब को
ख़्वाब-ए-आराम में सोता था वो गुल क़हर हुआ
रात के रहने का न डर कीजिए
अल्लाह-रे काफ़िरी तिरे तर्ज़-ए-ख़िराम की
किबरियाई की अदा तुझ में है
मैं कर के चला बातें और उस शोख़ ने वोहीं