पीछे फिर फिर देखता जाता हूँ और भागूँ हूँ मैं
अपने साए से भी अब तो मुझ को वहशत हो गई
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क़ासिद जो गया मेरा ले नामा तो ज़ालिम ने
'मुसहफ़ी' तू ने ज़ि-बस गुल के लिए हैं बोसे
छोड़ा न एक लहज़ा तिरी ज़ुल्फ़ ने ख़याल
ढूँढता है मुझे वो तेग़ लिए और मैं वहीं
कहिए जो झूट तो हम होते हैं कह के रुस्वा
निस्बत फिर उस से क्या मह-ए-दाग़ी को दीजिए
'मुसहफ़ी' फ़ारसी को ताक़ पे रख
मुँह में जिस के तू शब-ए-वस्ल ज़बाँ देता है
पर्दा-ए-गोश-ए-असीराँ न हुई इक शब-ए-गर्म
किस के मजरूह गुलिस्ताँ में हैं मदफ़ूँ जो हनूज़
ये ज़माना वो है जिस में हैं बुज़ुर्ग ओ ख़ुर्द जितने
रखें हैं जी में मगर मुझ से बद-गुमानी आप