'मुसहफ़ी' तू ने ज़ि-बस गुल के लिए हैं बोसे
रश्क से देखे है बुलबुल दहन-ए-सुर्ख़ तिरा
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आज की शब गर रहेंगे 'मुसहफ़ी' बैरून-ए-दर
आह देखी थी मैं जिस घर में परी की सूरत
शब-ए-हिज्र सहरा-ए-ज़ुल्मात निकली
लगते हैं नित जो ख़ूबाँ शरमाने बावले हैं
तन तो कहाँ है शोला-ए-फ़ानूस की तरह
आप हर दम जो ये कहते हैं कि तू क्यूँ है खड़ा
अज़-बस भला लगे है तू मेरे यार मुझ को
ओ मियाँ बाँके है कहाँ की चाल
बहुत दिलों को सताया है तू ने ऐ ज़ालिम
रात पर्दे से ज़रा मुँह जो किसू का निकला
दम ग़नीमत है कि वक़्त-ए-ख़ुश-दिली मिलता नहीं
उस गुल का पता गर नहीं देते हो तो यारो